उस के बदन का लम्स अभी उँगलियों में है
ख़ुश्बू वो चाँदनी की मिरे ज़ाइक़ों में है
मैं सोच के भँवर में था जिस शख़्स के लिए
वो ख़ुद भी कुछ दिनों से बड़ी उलझनों में है
उस का वजूद ख़ामुशी का इश्तिहार है
लगता है एक उम्र से वो मक़बरों में है
मैं आसमाँ पे नक़्श नहीं हूँ मगर सुनो
अब भी मिरी शबीह कई सूरजों में है
मेरी तरह लबादा ख़मोशी का ओढ़ ले
अपना किया-धरा है जो अब झोलियों में है
मैं कोरे काग़ज़ों की क़तारें उदास उदास
गुज़री रुतों के दुख की थकन बादलों में है
हर चंद काएनात रही बे-कराँ मगर
इंसान इब्तिदा ही से कुछ दाएरों में है
ग़ज़ल
उस के बदन का लम्स अभी उँगलियों में है
तारिक़ जामी