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उस का अंजाम भला हो कि बुरा हो कुछ हो | शाही शायरी
us ka anjam bhala ho ki bura ho kuchh ho

ग़ज़ल

उस का अंजाम भला हो कि बुरा हो कुछ हो

अरशद जमाल हश्मी

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उस का अंजाम भला हो कि बुरा हो कुछ हो
अब रेआ'या हमें रहना नहीं शाहो कुछ हो

ज़ख़्म का एक सा ये रंग नहीं भाता है
अब तो ये ठीक हो या और हरा हो कुछ हो

बंद यादों के हवालात में कब तक रहूँ मैं
या मैं हो जाऊँ बरी या तो सज़ा हो कुछ हो

जिस्म कहता है कि अब जाँ से गुज़र ही जाओ
दिल ये कहता है कि ये रिश्ता निबाहो कुछ हो

बे-परस्तिश बशरिय्यत नहीं रह सकती है
बुत हो महबूब हो दुनिया हो ख़ुदा हो कुछ हो

अब तो बिस्तर से ये बीमार उठा चाहता है
कुछ तो दो ज़हर-ए-हलाहल हो दवा हो कुछ हो

ज़ीस्त 'अरशद' बड़ी बे-कैफ़ हुई जाती है
चाहिए दर्द पुराना हो नया हो कुछ हो