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उस हुस्न-ए-बे-नियाज़ के कुछ मर्तबे थे और | शाही शायरी
us husn-e-be-niyaz ke kuchh martabe the aur

ग़ज़ल

उस हुस्न-ए-बे-नियाज़ के कुछ मर्तबे थे और

लईक़ आजिज़

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उस हुस्न-ए-बे-नियाज़ के कुछ मर्तबे थे और
मेरी उदास रातों के बुझते दिए थे और

ज़ख़्मों को नोक-ए-ख़ार की लज़्ज़त पसंद थी
वैसे तुम्हारे घर के कई रास्ते थे और

मैं ही नहीं था खोखले पेड़ों के दरमियाँ
मुझ जैसे ना-शनास वहाँ पर खड़े थे और

इस से बिछड़ के रोने की फ़ुर्सत नहीं मिली
क़िर्तास-ए-ज़िंदगी पे कई ग़म लिखे थे और

दामन में जो गुहर हैं नतीजे हैं इश्क़ के
पहले जो मेरे पास थे वो आइने थे और

साक़ी बचा ली आबरू तू ने ख़ुद अपनी आज
वर्ना मिरी मंज़र में कई मय-कदे थे और

जिस के इक एक मिसरे में रहता था उस का ज़िक्र
'आजिज़' वो शेर और थे वो क़ाफ़िए थे और