EN اردو
उस अदा से भी हूँ मैं आश्ना तुझे इतना जिस पे ग़ुरूर है | शाही शायरी
us ada se bhi hun main aashna tujhe itna jis pe ghurur hai

ग़ज़ल

उस अदा से भी हूँ मैं आश्ना तुझे इतना जिस पे ग़ुरूर है

क़तील शिफ़ाई

;

उस अदा से भी हूँ मैं आश्ना तुझे इतना जिस पे ग़ुरूर है
मैं जियूँगा तेरे बग़ैर भी मुझे ज़िंदगी का शुऊ'र है

न हवस मुझे मय-ए-नाब की न तलब सबा-ओ-सहाब की
तिरी चश्म-ए-नाज़ की ख़ैर हो मुझे बे-पिए ही सुरूर है

जो समझ लिया तुझे बा-वफ़ा तो फिर इस में तेरी भी क्या ख़ता
ये ख़लल है मेरे दिमाग़ का ये मिरी नज़र का क़ुसूर है

कोई बात दिल में वो ठान के न उलझ पड़े तिरी शान से
वो नियाज़-मंद जो सर-ब-ख़म कई दिन से तेरे हुज़ूर है

मुझे देंगी ख़ाक तसल्लियाँ तिरी जाँ-गुदाज़ तजल्लियाँ
मैं सवाल-ए-शौक़-ए-विसाल हूँ तो जलाल-ए-शो'ला-ए-तूर है

मैं निकल के भी तिरे दाम से न गिरूँगा अपने मक़ाम से
मैं 'क़तील'-ए-तेग़-ए-जफ़ा सही मुझे तुझ से इश्क़ ज़रूर है