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उन से वो रस्म-ए-मुलाक़ात चली जाती है | शाही शायरी
un se wo rasm-e-mulaqat chali jati hai

ग़ज़ल

उन से वो रस्म-ए-मुलाक़ात चली जाती है

सज्जाद बाक़र रिज़वी

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उन से वो रस्म-ए-मुलाक़ात चली जाती है
ये भी सौ बात में इक बात चली जाती है

वही बे-मेहरी-ए-दुनिया की शिकायत है जो थी
वही बे-कैफ़ी-ए-हालात चली जाती है

दिल से किस तरह हटे साया-ए-वहशत की अभी
इन निगाहों की करामात चली जाती है

मेरी आशुफ़्ता-मिज़ाजी पे वो हँस देते हैं
यूँ भी इक तर्ज़-ए-मुदारात चली जाती है

जब से इस बज़्म का दस्तूर बनी मोहर-लबी
रस्म-ए-ईहाम-ओ-इशारात चली जाती है

नाम मरने पे भी है उन के वफ़ादारों में
काम रुक जाए मगर बात चली जाती है

होता आया है ग़म-ए-ज़ीस्त इबारत उन से
गर्मी-ए-बज़्म-ए-ख़यालात चली जाती है

आह भर लीजिए रो लीजिए कह लीजिए शे'र
वो गिराँ-बारी-ए-जज़्बात चली जाती है

हम कहाँ बज़्म-ए-गह-ए-नाज़ कहाँ फिर ये ग़ज़ल
अर्ज़-ए-अहवाल-ओ-शिकायात चली जाती है