उन से हर हाल में तुम सिलसिला-जुम्बाँ रखना
कुछ मदावा-ए-ग़म-ए-गर्दिश-ए-दौराँ रखना
अपने क़ाबू में ज़रा गेसू-ए-पेचाँ रखना
रास आता नहीं दुनिया को परेशाँ रखना
इस अँधेरे में भटक जाएँ न यादें उन की
अपनी मिज़्गाँ पे चराग़ों को फ़रोज़ाँ रखना
आज-कल बिकते हैं बाज़ार में इंसाँ के ज़मीर
तुम हो इंसान तो फिर वक़अ'त-ए-इंसाँ रखना
दाग़ दिल के हैं सलामत तो कोई बात नहीं
तीरगी लाख सही सुब्ह का इम्काँ रखना
मौसम-ए-शहर-ए-निगाराँ का कोई ठीक नहीं
गोशा-ए-दिल में कोई आतिश-ए-सोज़ाँ रखना
तुम से सच पूछो तो इतनी है गुज़ारिश मेरी
अपने 'अफ़सर' को ख़िज़ाँ में भी ग़ज़ल-ख़्वाँ रखना
ग़ज़ल
उन से हर हाल में तुम सिलसिला-जुम्बाँ रखना
अफ़सर माहपुरी