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उन ने किया था याद मुझे भूल कर कहीं | शाही शायरी
un ne kiya tha yaad mujhe bhul kar kahin

ग़ज़ल

उन ने किया था याद मुझे भूल कर कहीं

ख़्वाजा मीर 'दर्द'

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उन ने किया था याद मुझे भूल कर कहीं
पाता नहीं हूँ तब से मैं अपनी ख़बर कहीं

आ जाए ऐसे जीने से अपना तो जी ब-तंग
जीता रहेगा कब तलक ऐ ख़िज़्र मर कहीं

फिरती रही तड़पती ही आलम में जा-ब-जा
देखा न मेरी आह ने रू-ए-असर कहीं

मुद्दत तलक जहान में हँसते फिरा किए
जी में है ख़ूब रोइए अब बैठ कर कहीं

यूँ तो नज़र पड़े हैं दिल-अफ़गार और भी
दिल रीश कोई आप सा देखा न पर कहीं

ज़ालिम जफ़ा जो चाहे सो कर मुझ पे तू वले
पछतावे फिर तो आप ही ऐसा न कर कहीं

फिरते तो हो बनाए सज अपनी जिधर तिधर
लग जावे देखियो न कसू की नज़र कहीं

पूछा मैं दर्द से कि बता तू सही मुझे
ऐ ख़ानुमाँ-ख़राब है तेरे भी घर कहीं

कहने लगा मकान-ए-मुअ'य्यन फ़क़ीर को
लाज़िम है क्या कि एक ही जागह हो हर कहीं

दरवेश हर कुजा कि शब आमद सरा-ए-ऊस्त
तू ने सुना नहीं है ये मिस्रा मगर कहीं