उन ने किया था याद मुझे भूल कर कहीं 
पाता नहीं हूँ तब से मैं अपनी ख़बर कहीं 
आ जाए ऐसे जीने से अपना तो जी ब-तंग 
जीता रहेगा कब तलक ऐ ख़िज़्र मर कहीं 
फिरती रही तड़पती ही आलम में जा-ब-जा 
देखा न मेरी आह ने रू-ए-असर कहीं 
मुद्दत तलक जहान में हँसते फिरा किए 
जी में है ख़ूब रोइए अब बैठ कर कहीं 
यूँ तो नज़र पड़े हैं दिल-अफ़गार और भी 
दिल रीश कोई आप सा देखा न पर कहीं 
ज़ालिम जफ़ा जो चाहे सो कर मुझ पे तू वले 
पछतावे फिर तो आप ही ऐसा न कर कहीं 
फिरते तो हो बनाए सज अपनी जिधर तिधर 
लग जावे देखियो न कसू की नज़र कहीं 
पूछा मैं दर्द से कि बता तू सही मुझे 
ऐ ख़ानुमाँ-ख़राब है तेरे भी घर कहीं 
कहने लगा मकान-ए-मुअ'य्यन फ़क़ीर को 
लाज़िम है क्या कि एक ही जागह हो हर कहीं 
दरवेश हर कुजा कि शब आमद सरा-ए-ऊस्त 
तू ने सुना नहीं है ये मिस्रा मगर कहीं
        ग़ज़ल
उन ने किया था याद मुझे भूल कर कहीं
ख़्वाजा मीर 'दर्द'

