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उन की निगह-ए-नाज़ के ठुकराए हुए हैं | शाही शायरी
unki nigah-e-naz ke Thukrae hue hain

ग़ज़ल

उन की निगह-ए-नाज़ के ठुकराए हुए हैं

वफ़ा मलिकपुरी

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उन की निगह-ए-नाज़ के ठुकराए हुए हैं
हम जुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा पाए हुए हैं

ये साया-नशीनान-ए-गुज़र-गाह-ए-तमन्ना
कुछ इश्क़ के कुछ अक़्ल के बहकाए हुए हैं

अब उन को नई सुब्ह के पैग़ाम सुना दो
जो तीरगी-ए-वक़्त से घबराए हुए हैं

मय छलकेगी मय उबलेगी मय बरसेगी रिंदो
मय-ख़ाने में ख़ुद शैख़-ए-हरम आए हुए हैं

तौबा नहीं टूटेगी सुबू आए कि ख़ुम आए
मय-कश तिरी आँखों की क़सम खाए हुए हैं

उन अश्कों के क़तरों को भी बे-माया न समझो
मज़लूमों की आँखों में जगह पाए हुए हैं

अब उन के तग़ाफ़ुल का 'वफ़ा' ज़िक्र न छेड़ो
देखो तो वो किस नाज़ से शरमाए हुए हैं