उन की महफ़िल में हमेशा से यही देखा रिवाज
आँख से बीमार करते हैं तबस्सुम से इलाज
मैं जो रोया उन की आँखों में भी आँसू आ गए
हुस्न की फ़ितरत में शामिल है मोहब्बत का मिज़ाज
मेरी ख़ातिर ख़ुद उठाते हैं वो तकलीफ़-ए-करम
कौन रखता वर्ना मुझ जैसे गुनहगारों की लाज
मेरे होने और न होने पर ही क्या मौक़ूफ़ है
मौत पर उन की हुकूमत ज़िंदगी पर उन का राज
उफ़ वो आरिज़ जिस के जल्वों पर फ़िदा मेहर-ए-मुबीं
आह वो लब जिन को देते हैं मह ओ अंजुम ख़िराज
मैं हूँ 'अनवर' उन की ज़ात-ए-पाक का अदना ग़ुलाम
है सर-ए-अक़दस पे जिन के रहमत-ए-यज़्दाँ का ताज
ग़ज़ल
उन की महफ़िल में हमेशा से यही देखा रिवाज
अनवर साबरी