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उन के होते कौन देखे दीदा-ओ-दिल का बिगाड़ | शाही शायरी
un ke hote kaun dekhe dida-o-dil ka bigaD

ग़ज़ल

उन के होते कौन देखे दीदा-ओ-दिल का बिगाड़

रियाज़ ख़ैराबादी

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उन के होते कौन देखे दीदा-ओ-दिल का बिगाड़
पड़ गया दोनों में फ़र्त-ए-रश्क से कैसा बिगाड़

उस की महफ़िल का मुरक़्क़ा' खींच ऐ मानी मगर
इस मुरक़्क़े में ज़रा तू ग़ैर का चेहरा बिगाड़

तेरे झुकने से झुके हैं दिल के लेने को हसीं
कम लगा कर दाम ऐ ज़ालिम न तू सौदा बिगाड़

दुख़्त-ए-रज़ को शक्ल तेरी देख कर नफ़रत न हो
तल्ख़ी-ए-मय से अरे ज़ाहिद न मुँह इतना बिगाड़

हाँ वही फिर का'बा बन जाएगा ऐ शेख़-ए-हरम
बुत-कदे का पहले नक़्शा खींच फिर नक़्शा बिगाड़

हो तअ'ल्लुक़ गुल-रुख़ों से तो मज़ा हर बात में
क्या बनावट क्या खिंचावट क्या लगावट क्या बिगाड़

मेरे हाल-ए-ज़ार पर आ जाए तुझ को आप रहम
ओ बनाने वाले मेरे मुझ को तू इतना बिगाड़

कोई हों काफ़िर हों या अल्लाह वाले ऐ 'रियाज़'
चार दिन की ज़िंदगानी में किसी से क्या बिगाड़