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उन ही पेड़ों पे कि सायों का गुमाँ रखते हैं | शाही शायरी
un hi peDon pe ki sayon ka guman rakhte hain

ग़ज़ल

उन ही पेड़ों पे कि सायों का गुमाँ रखते हैं

सय्यद रज़ा

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उन ही पेड़ों पे कि सायों का गुमाँ रखते हैं
मुनहसिर अपने लिए आग धुआँ रखते हैं

जैसे पोशाक पे पोशाक पहन कर निकलें
ख़ुद को आज़ाद तकल्लुफ़ से कहाँ रखते हैं

हम भी अंगूर की शाख़ों की तरह उठ उठ कर
हाए तक़दीर ब-दस्त-ए-दिगराँ रखते हैं

ज़लज़ले आएँगे तस्लीम बजा लाएँगे
ज़ोहद-पिंदार अभी कोह-ए-गिराँ रखते हैं

पहले दीवानगी की हद ही नहीं खींचती थी
सामने अब रम-ए-आहू के निशाँ रखते हैं

इस क़दर फ़ासले फैला के कहाँ बैठा है
तुझे तो पास ही मिस्ल-ए-रग-ए-जाँ रखते हैं