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उमूद हो के उफ़ुक़ में बदल रहे हैं सुतून | शाही शायरी
umud ho ke ufuq mein badal rahe hain sutun

ग़ज़ल

उमूद हो के उफ़ुक़ में बदल रहे हैं सुतून

रउफ़ ख़लिश

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उमूद हो के उफ़ुक़ में बदल रहे हैं सुतून
दहल रही है इमारत पिघल रहे हैं सुतून

बिना ही खोखली ठहरी तो क्या उरूज-ओ-ज़वाल
शिकस्तगी की अलामत में ढल रहे हैं सुतून

छतें तो गिर गईं शहतीर की ख़राबी से
ये किस का बोझ उठाए सँभल रहे हैं सुतून

हवा के रुख़ ने नया मर्सिया लिखा है जहाँ
भड़क उठी है वहीं आग जल रहे हैं सुतून

निदा है कैसी ज़मीं ऐ ज़मीं ख़बर तो ले
कि बंद कमरों का सब राज़ उगल रहे हैं सुतून

बदलते लम्हों को गिनते हुए हैं इस्तादा
नज़र का ज़ाविया कहता है चल रहे हैं सुतून