उम्र की इस नाव का चलना भी क्या रुकना भी क्या
किरमक-ए-शब हूँ मिरा जलना भी क्या बुझना भी क्या
इक नज़र उस चश्म-ए-तर का मेरी जानिब देखना
आब-शार-ए-नूर का फिर ख़ाक पर गिरना भी क्या
ज़ख़्म का लगना हमें दरकार था सो इस के बा'द
ज़ख़्म का रिस्ना भी क्या और ज़ख़्म का भरना भी क्या
तेरे घर तक आ चुकी है दूर के जंगल की आग
अब तिरा इस आग से डरना भी क्या लड़ना भी क्या
दर दरीचे वा मगर बाज़ार-ए-गालियाँ मोहर-बंद
ऐसे ज़ालिम शहर में जीना भी क्या मरना भी क्या
तुझ से ऐ संग-ए-सदा इस रेज़ा रेज़ा दौर में
इक ज़रा से दिल की ख़ातिर दोस्ती करना भी क्या

ग़ज़ल
उम्र की इस नाव का चलना भी क्या रुकना भी क्या
वज़ीर आग़ा