EN اردو
उम्र-भर कुछ इस तरह हम जागते सोते रहे | शाही शायरी
umr-bhar kuchh is tarah hum jagte sote rahe

ग़ज़ल

उम्र-भर कुछ इस तरह हम जागते सोते रहे

कुंवर बेचैन

;

उम्र-भर कुछ इस तरह हम जागते सोते रहे
भीड़ में हँसते रहे तन्हाई में रोते रहे

रौशनी की थी कहाँ फ़ुर्सत जो वो ये सोचती
कैसे कैसे उस की ख़ातिर हम हवन होते रहे

धूप की फ़सलें उगेंगी ये हमें मा'लूम था
फिर भी हम सब के दिलों में चाँदनी बोते रहे

सारे बोझों को बड़ा अचरज है कैसे हम उन्हें
फूल जैसी ज़िंदगी की पीठ पर ढोते रहे

उन ही ज़ख़्मों ने हमें सौंपी कराहें ऐ 'कुँवर'
जिन के मुँह हम आँसुओं के नीर से धोते रहे