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उम्र भर काविश-ए-इज़हार ने सोने न दिया | शाही शायरी
umr bhar kawish-e-izhaar ne sone na diya

ग़ज़ल

उम्र भर काविश-ए-इज़हार ने सोने न दिया

सलीम अहमद

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उम्र भर काविश-ए-इज़हार ने सोने न दिया
हर्फ़-ए-ना-गुफ़्ता के आज़ार ने सोने न दिया

दश्त की वुसअत-ए-बे-क़ैद में क्या नींद आती
घर की क़ैद-ए-दर-ओ-दीवार ने सोने न दिया

थक के सो रहने को रस्ते में ठिकाने थे बहुत
हवस-ए-साया-ए-दीवार ने सोने न दिया

कभी इक़रार की लज़्ज़त ने जगाए रक्खा
कभी अंदेशा-ए-इनकार ने सोने न दिया

हो गई सुब्ह बदलते रहे पहलू शब भर
एक करवट पे दिल-ए-ज़ार ने सोने न दिया