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उम्र बे-वज्ह गुज़ारे भी नहीं जा सकते | शाही शायरी
umr be-wajh guzare bhi nahin ja sakte

ग़ज़ल

उम्र बे-वज्ह गुज़ारे भी नहीं जा सकते

फ़रहत एहसास

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उम्र बे-वज्ह गुज़ारे भी नहीं जा सकते
इतने ज़िंदा हैं कि मारे भी नहीं जा सकते

हाल अब ये है कि दरिया में भी लगता नहीं जी
और किसी एक किनारे भी नहीं जा सकते

उस जगह जा के वो बैठा है भरी महफ़िल में
अब जहाँ मेरे इशारे भी नहीं जा सकते

ज़ेब-तन इतने किए दिल ने हवस के मल्बूस
कि शब-ए-वस्ल उतारे भी नहीं जा सकते

नींद से उस को जगाना भी ज़रूरी है बहुत
रात-भर उस को पुकारे भी नहीं जा सकते

सारी शक्लों से परे है वो हमारा महबूब
सो तसव्वुर के सहारे भी नहीं जा सकते

जीतने का न कोई शौक़ न तौफ़ीक़ हमें
लेकिन इस तरह तो हारे भी नहीं जा सकते

फ़लक-ए-इश्क़ पे ता-देर ठहरना है मुहाल
इस बुलंदी से उतारे भी नहीं जा सकते

फ़रहत-एहसास तुझे मनअ' है जाना उस तक
क्या तिरे ख़ून के धारे भी नहीं जा सकते