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उमँड रही हैं घटाएँ कि ज़ुल्फ़ बरहम है | शाही शायरी
umanD rahi hain ghaTaen ki zulf barham hai

ग़ज़ल

उमँड रही हैं घटाएँ कि ज़ुल्फ़ बरहम है

नज़ीर मोहसिन

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उमँड रही हैं घटाएँ कि ज़ुल्फ़ बरहम है
छलक रहा है जो ख़ुम है कि आँख पुर-नम है

नशात-ए-ज़ीस्त मयस्सर नहीं तो क्या शिकवा
मुझे हयात से बढ़ कर हयात का ग़म है

फिर आज गर्दिश-ए-दौराँ से मात खाई है
बिसात-ए-दिल ही उलट दो कि हौसला कम है

ठहर न जाए कहीं नब्ज़-ए-गर्दिश-ए-दौराँ
तिरी निगाह-ए-करम का कुछ और आलम है

न शोर-ए-नग़्मा न रक़्स-ए-सुबू न ख़ंदा-ए-गुल
चमन में आज निगार-ए-चमन का मातम है