उलझी हुई सोचों की गिर्हें खोलते रहना
अच्छा है मगर इन में लहू घोलते रहना
दिन भर किसी मंज़र के तआक़ुब में भटकना
और शाम को लफ़्ज़ों के नगीं रोलते रहना
मैं लम्हा-ए-महफ़ूज़ नहीं रुक न सकूँगा
उड़ना है मिरे संग तो पर तौलते रहना
ख़ामोश भी रहने से जनाज़े नहीं रुकते
जीने के लिए हम-नफ़सो बोलते रहना
अच्छा नहीं आग़ाज़-ए-मसाफ़त ही में 'नासिर'
कश्ती का सर-ए-आब-ए-रवाँ डोलते रहना
ग़ज़ल
उलझी हुई सोचों की गिर्हें खोलते रहना
हसन नासिर