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उलझनों में कैसे इत्मीनान-ए-दिल पैदा करें | शाही शायरी
uljhanon mein kaise itminan-e-dil paida karen

ग़ज़ल

उलझनों में कैसे इत्मीनान-ए-दिल पैदा करें

सबा अकबराबादी

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उलझनों में कैसे इत्मीनान-ए-दिल पैदा करें
बिजलियों में रह के तिनकों का भरोसा क्या करें

ज़ब्त आँसू जब किए तो उछला चेहरे पर लहू
ग़म की मौजें रोकने से रास्ता पैदा करें

कहते हैं क़िस्सा ज़माने से यही तशवीश है
सी लिए हैं लब मगर इन आँसुओं को क्या करें

हम भी बंदे हैं हमें भी मक़दरत इतनी तो है
वो ख़ुदा बन जाए जिस के सामने सज्दा करें

ताक़त-ए-दीदार ज़ाहिर और आँखों को ये शौक़
बस तुम्हें देखा करें देखा करें देखा करें

चाहते ये हैं कि राह-ए-ज़िंदगी हमवार हो
सोचते ये हैं कि दुनिया को तह-ओ-बाला करें

बेवफ़ा सूरज ढला जाता है चश्म-ए-शौक़ से
और कब तक ए'तिबार-ए-वादा-ए-फ़र्दा करें

मस्लहत का ये तक़ाज़ा है कि हँसना चाहिए
बज़्म-ए-हस्ती में 'सबा' कब तक ग़म-ए-दुनिया करें