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उल्फ़त-ए-शीरीं को भारी सिल समझ | शाही शायरी
ulfat-e-shirin ko bhaari sil samajh

ग़ज़ल

उल्फ़त-ए-शीरीं को भारी सिल समझ

किशन कुमार वक़ार

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उल्फ़त-ए-शीरीं को भारी सिल समझ
सहल को ऐ कोहकन मुश्किल समझ

गर्द-बाद-ए-दश्त ऐ मजनूँ न हो
तिल को लैला चश्म को महमिल समझ

जान नब्ज़-ए-राह दश्त-ए-नीस्ती
तेग़-ए-अबरू का मुझे बिस्मिल समझ

दिल को बैतुल्लाह कहता है जहाँ
इस को ऐ बुत मंज़िलत मंज़िल समझ

है जो शब-बेदार तेरी याद में
उस फ़रामुश-कार को ग़ाफ़िल समझ

ख़ून-ए-दिल है सुर्ख़-रूई का निशाँ
मुझ को बिस्मिल अपना ऐ क़ातिल समझ

वो निगाह-ए-गर्म है बर्क़ ऐ 'वक़ार'
ख़िर्मन-ए-हस्ती को बे-हासिल समझ