उल्फ़त-ए-शीरीं को भारी सिल समझ
सहल को ऐ कोहकन मुश्किल समझ
गर्द-बाद-ए-दश्त ऐ मजनूँ न हो
तिल को लैला चश्म को महमिल समझ
जान नब्ज़-ए-राह दश्त-ए-नीस्ती
तेग़-ए-अबरू का मुझे बिस्मिल समझ
दिल को बैतुल्लाह कहता है जहाँ
इस को ऐ बुत मंज़िलत मंज़िल समझ
है जो शब-बेदार तेरी याद में
उस फ़रामुश-कार को ग़ाफ़िल समझ
ख़ून-ए-दिल है सुर्ख़-रूई का निशाँ
मुझ को बिस्मिल अपना ऐ क़ातिल समझ
वो निगाह-ए-गर्म है बर्क़ ऐ 'वक़ार'
ख़िर्मन-ए-हस्ती को बे-हासिल समझ
ग़ज़ल
उल्फ़त-ए-शीरीं को भारी सिल समझ
किशन कुमार वक़ार

