उजले परों में कौन छुपा है पता नहीं
माथे पे तो किसी के फ़रेबी लिखा नहीं
गलियों में कोई आ के फिर इक बार चीख़ जाए
मुद्दत से सारे शहर में कोई सदा नहीं
कजला गया है कितने ही क़दमों तले मगर
ये रास्ता अजीब है कुछ बोलता नहीं
भटका किया में ज़र्द हक़ारत के शहर में
नीली हदों के पार वो लेकिन मिला नहीं
हर साज़ पर उभरने लगे बेबसी के गीत
आओ कि रक़्स के लिए मौसम बुरा नहीं
काग़ज़ पे उस का नाम लिखो और काट दो
वो शख़्स भी तो अब हमें पहचानता नहीं

ग़ज़ल
उजले परों में कौन छुपा है पता नहीं
रईस फ़राज़