उजड़ी हुई बस्ती की सुब्ह ओ शाम ही क्या
ख़ाक उड़ाने वालों का अंजाम ही क्या
पास से हो कर यूँही गुज़र जाती है सबा
दीवाने के नाम कोई पैग़ाम ही क्या
जो भी तुम्हारे जी में आए कह डालो
हम मस्ताने लोग हमारा नाम ही क्या
दौर-ए-मय-ओ-साग़र भी अपने शबाब पे है
गर्दिश में है चर्ख़-ए-नीली-फ़ाम ही क्या
'ज़ेब' के मर जाने की तो ये उम्र न थी
डूब गया सूरज बाला-ए-बाम ही क्या
ग़ज़ल
उजड़ी हुई बस्ती की सुब्ह ओ शाम ही क्या
ज़ेब ग़ौरी