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उगा सब्ज़ा दर-ओ-दीवार पर आहिस्ता आहिस्ता | शाही शायरी
uga sabza dar-o-diwar par aahista aahista

ग़ज़ल

उगा सब्ज़ा दर-ओ-दीवार पर आहिस्ता आहिस्ता

मुनीर नियाज़ी

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उगा सब्ज़ा दर-ओ-दीवार पर आहिस्ता आहिस्ता
हुआ ख़ाली सदाओं से नगर आहिस्ता आहिस्ता

घिरा बादल ख़मोशी से ख़िज़ाँ-आसार बाग़ों पर
हिले ठंडी हवाओं में शजर आहिस्ता आहिस्ता

बहुत ही सुस्त था मंज़र लहू के रंग लाने का
निशाँ आख़िर हुआ ये सुर्ख़-तर आहिस्ता आहिस्ता

चमक ज़र की उसे आख़िर मकान-ए-ख़ाक में लाई
बनाया साँप ने जिस्मों में घर आहिस्ता आहिस्ता

मिरे बाहर फ़सीलें थीं गुबार-ए-ख़ाक-ओ-बाराँ की
मिली मुझ को तिरे ग़म की ख़बर आहिस्ता आहिस्ता

'मुनीर' इस मुल्क पर आसेब का साया है या क्या है
कि हरकत तेज़-तर है और सफ़र आहिस्ता आहिस्ता