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उफ़ुक़ तक मेरा सहरा खिल रहा है | शाही शायरी
ufuq tak mera sahra khil raha hai

ग़ज़ल

उफ़ुक़ तक मेरा सहरा खिल रहा है

यासमीन हमीद

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उफ़ुक़ तक मेरा सहरा खिल रहा है
कहीं दरिया से दरिया मिल रहा है

लिबास-ए-अब्र ने भी रंग बदला
ज़मीं का पैरहन भी सिल रहा है

इसी तख़्लीक़ की आसूदगी में
बहुत बेचैन मेरा दिल रहा है

किसी के नर्म लहजे का क़रीना
मिरी आवाज़ में शामिल रहा है

मैं अब उस हर्फ़ से कतरा रही हूँ
जो मेरी बात का हासिल रहा है

किसी के दिल की ना-हमवारियों पर
सँभलना किस क़दर मुश्किल रहा है