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उफ़ुक़ से आग उतर आई है मिरे घर भी | शाही शायरी
ufuq se aag utar aai hai mere ghar bhi

ग़ज़ल

उफ़ुक़ से आग उतर आई है मिरे घर भी

ग़ुलाम हुसैन साजिद

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उफ़ुक़ से आग उतर आई है मिरे घर भी
शिकस्त होते हैं क्या शहर अपने अंदर भी

ये आब-ओ-ताब इसी मरहले पे ख़त्म नहीं
कोई चराग़ है इस आइने से बाहर भी

ख़मीर जिस ने उठाया है ख़ाक से मेरा
उसी ने ख़्वाब से खींचा है मेरा जौहर भी

मैं ढूँड लूँगा कोई रास्ता पलटने का
जो बंद होगा कभी मुझ पे आप का दर भी

किसी के अक्स-ए-मुनव्वर की छूट से है दंग
तो मेरे दम से है ये आईना मुकद्दर भी

ये सैल-ए-शब ही नहीं मेरे वास्ते जारी
रवाँ है मेरे लिए सुब्ह का समुंदर भी

दहकने वाले फ़क़त फूल ही न थे 'साजिद'
खिले हुए थे इन्ही क्यारियों में अख़गर भी