उफ़ुक़ पे दूधिया साया जो पाँव धरने लगा
मुहीब रात का शीराज़ा ही बिखरने लगा
तमाम उम्र जो लड़ता रहा मिरे अंदर
मिरा ज़मीर ही मुझ से फ़रार करने लगा
सफ़र में जब कभी ला-सम्तियों का ज़िक्र हुआ
हमारा क़ाफ़िला तूल-ए-सफ़र से डरने लगा
सुलग रहा है कहीं दूर दर्द का जंगल
जो आसमान पे कड़वा धुआँ बिखरने लगा
चढ़ी नदी को मैं पायाब कर के क्या आया
तमाम शहर ही दरिया के पार करने लगा
अजीब कर्ब से गुज़रा है जुगनुओं का जुलूस
कहाँ ठहरना था इस को कहाँ ठहरने लगा
हमारे साथ रही है सफ़र में बे-ख़बरी
जुनूँ में सोच का इम्कान काम करने लगा
बहुत अजीब है बातिन की गुमरही ऐ 'रिंद'
सुकूत-ए-ज़ाहिरी टुकड़ों में था बिखरने लगा
ग़ज़ल
उफ़ुक़ पे दूधिया साया जो पाँव धरने लगा
पी पी श्रीवास्तव रिंद