उफ़ुक़ के ख़ूनीं धुँदलकों का सुब्ह नाम नहीं
क़दम बढ़ा कि ये साथी तिरा मक़ाम नहीं
अभी न दे मुझे इज़्न-ए-बहार ऐ साक़ी
अभी हयात सितारों से हम-कलाम नहीं
मिला है अब कहीं सदियों के बा'द मस्तों को
वो मय-कदा कि जहाँ कोई तिश्ना काम नहीं
न आरिज़ों पे शफ़क़ है न गेसुओं में शिकन
ये सुब्ह-ओ-शाम नहीं मेरे सुब्ह-ओ-शाम नहीं
बहार-ए-दैर-ओ-हरम ले के क्या करूँ नासेह
ये क़ाफ़िले तो अभी तक सहर-मक़ाम नहीं
क़दम क़दम पे है दरकार जहद-ओ-फ़िक्र-ओ-अमल
ये ज़िंदगी है सदा-ए-शिकस्त-ए-जाम नहीं
अभी तो दामन-ए-शब में सिसक रही है सहर
बढ़े चलो कि अभी साअ'त-ए-क़याम नहीं
ग़ज़ल
उफ़ुक़ के ख़ूनीं धुँदलकों का सुब्ह नाम नहीं
अर्शी भोपाली