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उड़ते लम्हों के भँवर में कोई फँसता ही नहीं | शाही शायरी
uDte lamhon ke bhanwar mein koi phansta hi nahin

ग़ज़ल

उड़ते लम्हों के भँवर में कोई फँसता ही नहीं

असलम आज़ाद

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उड़ते लम्हों के भँवर में कोई फँसता ही नहीं
इस समुंदर में कोई तैरने वाला ही नहीं

सालहा-साल से वीरान हैं दिल की गलियाँ
एक मुद्दत से कोई इस तरफ़ आया ही नहीं

आँख के ग़ार में हैं सैकड़ों सड़ती लाशें
झाँक कर उन में किसी ने कभी देखा ही नहीं

दूर तक फैल गई टूटते लम्हों की ख़लीज
वक़्त का साया मिरे सर से उतरता ही नहीं

सिलसिला रोने का सदियों से चला आता है
कोई आँसू मिरी पलकों पे ठहरता ही नहीं

जलते आकाश की ढलवान पे सूरज का वजूद
इक पिघलता हुआ लावा है कि बुझता ही नहीं