उड़ता हुआ इक बादल था
या फिर तेरा आँचल था
चीख़ रहा था सड़कों पर
शायद वो भी पागल था
अब तो गंदा नाला हूँ
पहले में गंगा-जल था
आबादी से दूर बहुत
हरा-भरा इक जंगल था
मेरे जिस्म के अंदर ही
शायद मेरा क़ातिल था

ग़ज़ल
उड़ता हुआ इक बादल था
शाहिद अज़ीज़
ग़ज़ल
शाहिद अज़ीज़
उड़ता हुआ इक बादल था
या फिर तेरा आँचल था
चीख़ रहा था सड़कों पर
शायद वो भी पागल था
अब तो गंदा नाला हूँ
पहले में गंगा-जल था
आबादी से दूर बहुत
हरा-भरा इक जंगल था
मेरे जिस्म के अंदर ही
शायद मेरा क़ातिल था