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उधर वो दश्त-ए-मुसलसल इधर मुसलसल मैं | शाही शायरी
udhar wo dasht-e-musalsal idhar musalsal main

ग़ज़ल

उधर वो दश्त-ए-मुसलसल इधर मुसलसल मैं

फ़रहत एहसास

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उधर वो दश्त-ए-मुसलसल इधर मुसलसल मैं
वही अज़ल का वो साया वही ये पागल मैं

हर एक घर में किसी अजनबी सा रहता हूँ
किसी की अक़्ल में आता नहीं ये मोहमल मैं

तमाम शहर की आँखों में रेज़ा रेज़ा हूँ
किसी भी आँख से उठता नहीं मुकम्मल मैं

रिकाब-ए-ख़ाक में उलझे हैं आसमाँ के पाँव
मिरा ख़याल हवा पर है और पैदल मैं

कुछ इस क़दर है पस-ए-ख़ाक आँसुओं का हुजूम
बस एक बूँद उभर आई और जल-थल मैं