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उड़ाते आए हैं आप अपने ख़्वाब-ज़ार की ख़ाक | शाही शायरी
uDate aae hain aap apne KHwab-zar ki KHak

ग़ज़ल

उड़ाते आए हैं आप अपने ख़्वाब-ज़ार की ख़ाक

रहमान हफ़ीज़

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उड़ाते आए हैं आप अपने ख़्वाब-ज़ार की ख़ाक
ये और ख़ाक है इक दश्त-ए-बे-कनार की ख़ाक

ये मैं नहीं हूँ तो फिर किस की आमद आमद है
ख़ुशी से नाचती फिरती है रेगज़ार की ख़ाक

हमें भी एक ही सहरा दिया गया था मगर
उड़ा के आए हैं वहशत में बे-शुमार की ख़ाक

हमीं मुक़ीम हुए मुद्दतें हुईं लेकिन
सुरों से अब भी निकलती है रहगुज़ार की ख़ाक

ये हाल है कि अभी से खनक रहे हैं ज़रूफ़
अभी गुँधी नहीं जिन में से बे-शुमार की ख़ाक

सुना है ढूँडते फिरते हैं कब से कूज़ा-गराँ
हमारी आँख का पानी तिरे दयार की ख़ाक

अजब नहीं कि मुझे ज़िंदा गाड़ने वाले
कल आ के फाँक रहे हों मिरे मज़ार की ख़ाक