उदास शाम में पज़मुर्दा बाद बन के न आ
जो आ सके तो ख़ुद आ अपनी याद बन के न आ
कभी सहर भी तो बन ऐ विसाल के मौसम
सदा यूँ ही शब-ए-मर्ग-मुराद बन के न आ
तुझे तिरे मह ओ अंजुम का वास्ता ऐ रात
मिरे इन उजले दरों पर सवाद बन के न आ
किताब-ए-ज़ीस्त ख़ुदा-रा कोई ग़ज़ल भी सुना
शिकस्त-ए-जाँ की फ़क़त रूएदाद बन के न आ
भली लगे तो इसे गुनगुना भी ऐ लब-ए-यार
मिरी ग़ज़ल पे फ़क़त हर्फ़-ए-दाद बन के न आ
उतर ज़रूर मगर आह सुब्ह-ए-आज़ादी
किसी ज़मीन पे वजह-ए-फ़साद बन के न आ
ग़ज़ल
उदास शाम में पज़मुर्दा बाद बन के न आ
फ़रहान सालिम