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उभरा जो चाँद ऊँघती परछाइयाँ मिलीं | शाही शायरी
ubhra jo chand unghti parchhaiyan milin

ग़ज़ल

उभरा जो चाँद ऊँघती परछाइयाँ मिलीं

अतहर अज़ीज़

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उभरा जो चाँद ऊँघती परछाइयाँ मिलीं
हर रौशनी की गोद में तन्हाइयाँ मिलीं

शहर वफ़ा में हम जो चले आए दफ़अ'तन
हर हर क़दम पे दर्द की शहनाइयाँ मिलीं

ग़ुंचे हँसे तो हुस्न का कोसों पता न था
रूठी हुई कुछ ऐसी भी रानाइयाँ मिलीं

ज़ेहन-ए-ख़लिश से देखा जो ऐवान-ए-ख़्वाब को
ख़्वाहिश को पूजती हुई अंगनाइयाँ मिलीं

ख़ुशबू के रेग-ज़ार में क्या जाने क्या मिले
यादों के आइने में तो अंगड़ाइयाँ मिलीं