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उभर आया रुख़ पर हया का नगीना | शाही शायरी
ubhar aaya ruKH par haya ka nagina

ग़ज़ल

उभर आया रुख़ पर हया का नगीना

कंवल सियालकोटी

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उभर आया रुख़ पर हया का नगीना
जबीं पर न देखा था ऐसा पसीना

चली आ रही है हसीनों की टोली
ज़मीं पर है क़ौस-ए-क़ुज़ह का क़रीना

मिरे हाथ आ ही चला था किनारा
लगा डूबने मेरे दिल का सफ़ीना

कसक सोई रहती है बरसों कभी तो
जो जागे तो जागे महीना महीना

भला कौन जाने वो आएँ न आएँ
मिरे पास रहने ही दो जाम-ओ-मीना

कभी तुम ने देखी हैं पुर-ख़ार राहें
जो कहते हो उल्फ़त को फूलों का ज़ीना

उड़ा ली जो चोरी से गालों की चुटकी
तो बोले 'कँवल' भी है कितना कमीना