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टूटता हूँ कभी जुड़ता हूँ मैं | शाही शायरी
TuTta hun kabhi juDta hun main

ग़ज़ल

टूटता हूँ कभी जुड़ता हूँ मैं

नो बहार साबिर

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टूटता हूँ कभी जुड़ता हूँ मैं
जागती आँख का सपना हूँ मैं

अपनी सूरत को तरसता हूँ मैं
आइना ढूँडने निकला हूँ मैं

कभी पिन्हाँ कभी पैदा हूँ मैं
किस फ़ुसूँ-गर का तमाशा हूँ मैं

ख़लिश-ए-ख़ार कभी निकहत-ए-गुल
हर-नफ़स रंग बदलता हूँ मैं

देखिए किस की नज़र पड़ती है
कब से शोकेस में रक्खा हूँ मैं

कोई तिरयाक नहीं मेरा इलाज
कुश्ता-ए-ज़हर-ए-तमन्ना हूँ मैं

कभी उठते हैं मिरे दाम बहुत
कभी बे-मोल भी महँगा हूँ मैं

कोई पहचाने तो क्या पहचाने
कभी सूरत कभी साया हूँ मैं

आतिश-ए-ग़म की तमाज़त के निसार
जितना तपता हूँ निखरता हूँ मैं

कोई जादा है न मंज़िल 'साबिर'
अपने ही गिर्द भटकता हूँ मैं