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टूटे हुए ख़्वाबों के तलबगार भी आए | शाही शायरी
TuTe hue KHwabon ke talabgar bhi aae

ग़ज़ल

टूटे हुए ख़्वाबों के तलबगार भी आए

शोएब निज़ाम

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टूटे हुए ख़्वाबों के तलबगार भी आए
ऐ जिंस-ए-गिराँ तेरे ख़रीदार भी आए

मुद्दत हुई सुनते हुए तम्हीद-ए-तिलिस्मात
अब क़िस्से में आगे कोई किरदार भी आए

क्या ख़त्म न होगी कभी सहरा की हुकूमत
रस्ते में कहीं तो दर-ओ-दीवार भी आए

अब जिस के असर में है ये वीरान हवेली
वो साया कभी तो पस-ए-दीवार भी आए

फिर शहर में अय्याम-ए-गुज़िश्ता की उड़ी राख
फिर ज़द में कई जुब्बा-ओ-दस्तार भी आए

पहले तो सभी तेरे सरापा में हुए गुम
फिर ज़िक्र में आगे तिरे अतवार भी आए