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टूटे हैं कैसे ख़्वाहिशों के आइनों को देख | शाही शायरी
TuTe hain kaise KHwahishon ke aainon ko dekh

ग़ज़ल

टूटे हैं कैसे ख़्वाहिशों के आइनों को देख

महमूद शाम

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टूटे हैं कैसे ख़्वाहिशों के आइनों को देख
पलकों की तह में बिखरी हुई किर्चियों को देख

मैं हूँ तिरा ही अक्स मिरे रंग पर न जा
आँखों में झाँक अपनी ही तन्हाइयों को देख

ये आसमाँ के बदले हुए रंग ग़ौर कर
इन मौसमों के बिफरे हुए तेवरों को देख

सुन तो दर-ए-ख़याल पे फ़र्दा की दस्तकें
ख़ुद का हिसार तोड़ के जाती रुतों को देख

गलियों में घूमती हैं हज़ारों कहानियाँ
चेहरों पे नक़्श वक़्त की पहनाइयों को देख

इक इक पलक पे छाई है महरूमियों की शाम
ज़ब्त-ए-सुख़न की आग में जलते लबों को देख

कहती है 'शाम' कुछ तो मकानों की ख़ामुशी
बे-मुद्दआ नहीं हैं खुले रौज़नों को देख