तूफ़ाँ की ज़द पे अपना सफ़ीना जब आ गया 
साहिल को मौज मौज को साहिल बना गया 
मुँह तकते तकते थक गईं हिरमाँ-नसीबियाँ 
हर इंक़लाब-ए-शौक़ की हिम्मत बढ़ा गया 
ज़ौक़-ए-नज़र की जुरअत बेबाक अल-अमाँ 
रंग-ए-हयात बन के फ़ज़ाओं पे छा गया 
थर्रा के शम-ए-अंजुमन-ए-ऐश बुझ गई 
नैरंग-ए-नूर-ए-सुब्ह-ओ-मंज़र दिखा गया 
इज्ज़-ए-रह-ए-नियाज़ के क़ुर्बान जाइए 
नक़्श-ए-क़दम को नक़्श-ए-तमन्ना बना गया 
इतना करम भी जब्र-ए-मोहब्बत का कम नहीं 
घुट घुट के मरने वालों को जीना सिखा गया 
शो'ले से क्यूँ लपकते हैं गुलशन से बार बार 
'याक़ूब' क्या बहार का मौसम फिर आ गया
        ग़ज़ल
तूफ़ाँ की ज़द पे अपना सफ़ीना जब आ गया
याक़ूब उस्मानी

