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तूफ़ाँ के डर से रंग उड़ा भी इसी का था | शाही शायरी
tufan ke Dar se rang uDa bhi isi ka tha

ग़ज़ल

तूफ़ाँ के डर से रंग उड़ा भी इसी का था

ख़ान मोहम्मद ख़लील

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तूफ़ाँ के डर से रंग उड़ा भी इसी का था
लेकिन सफ़ीना पार लगा भी उसी का था

जो होंट सिल गए वो सना-ख़्वाँ उसी के थे
जो मर गया वो हर्फ़-ए-दुआ भी उसी का था

उतरी थी उस के घर में मह-ओ-महर की बरात
और मेरा टिमटिमाता दिया भी उसी का था

मीनार-ए-जाँ में उस की सदा गूँजती रही
लौह-ए-जबीं पे नाम लिखा भी उसी का था

थी उस के अक्स-ए-रुख़ से शफ़क़-रंग ज़िंदगी
मेरे लहू में रंग-ए-हिना भी उसी का था

ख़ामोशियों पे पहले कभी उस का बस न था
फिर यूँ हुआ कि शहर-ए-सदा भी उसी का था

पहले तो चंद लोग तरफ़-दार थे मिरे
फिर वो भी वक़्त था कि ख़ुदा भी उसी का था