तू याद आया और मिरी आँख भर गई
अक्सर तिरे बग़ैर क़यामत गुज़र गई
अव्वल तो मुफ़लिसों की कोई आरज़ू नहीं
पैदा कभी हुई भी तो घुट घुट के मर गई
इक इश्क़ जैसे लफ़्ज़ में मुज़्मिर हो काएनात
इक हुस्न जैसे धूप चढ़ी और उतर गई
नाज़ ओ अदा से पाँव उठे और लरज़ गए
अच्छा हुआ कि उस की बला उस के सर गई
'तारिक़' तसव्वुरात में आहट सी क्या हुई
जलते गए चराग़ जहाँ तक नज़र गई
ग़ज़ल
तू याद आया और मिरी आँख भर गई
शमीम तारिक़