तू ने जब भी आँख मिलाई
दीदा-ओ-दिल पर आफ़त आई
ये सन्नाटा ये तन्हाई
लेकिन तेरी याद तो आई
दैर-ओ-हरम में जा बैठे हैं
दुनिया जिन को रास न आई
टूट गईं सारी ज़ंजीरें
ज़ुल्फ़ तिरे रुख़ पर लहराई
मंज़िल दूर थी लेकिन हम ने
एक क़दम में ठोकर खाई
तुझ को मुबारक फूल और कलियाँ
मेरा हिस्सा आबला-पाई
छानी हम ने नगरी नगरी
सहरा सहरा ख़ाक उड़ाई
कौन 'मजीद' इस भेद को जाने
क्या शय खोई क्या शय पाई

ग़ज़ल
तू ने जब भी आँख मिलाई
मजीद लाहौरी