तू इक क़दम भी जो मेरी तरफ़ बढ़ा देता
मैं मंज़िलें तिरी दहलीज़ से मिला देता
ख़बर तो देता मुझे मुझ को छोड़ जाने की
मैं वापसी का तुझे रास्ता बता देता
मुझे तो रहना था आख़िर हद-ए-तअय्युन में
वो पास आता तो मैं फ़ासला बढ़ा देता
हम एक थे तो हमें बे-सदा ही रहना था
पुकारता वो किसे मैं किसे सदा देता
वो ख़्वाब देख रही थीं ये जागती आँखें
चराग़ ख़ुद नहीं बुझता तो मैं बुझा देता
हवा के रुख़ पे मिरा गाँव ही न था वर्ना
जो मुट्ठियों में भरी थी वो ख़ाक उड़ा देता
ग़ज़ल
तू इक क़दम भी जो मेरी तरफ़ बढ़ा देता
कैफ़ी विजदानी