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तू ही है मिरी ये बूद-ओ-बक़ा तू और नहीं मैं और नहीं | शाही शायरी
tu hi hai meri ye bud-o-baqa tu aur nahin main aur nahin

ग़ज़ल

तू ही है मिरी ये बूद-ओ-बक़ा तू और नहीं मैं और नहीं

मरदान सफ़ी

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तू ही है मिरी ये बूद-ओ-बक़ा तू और नहीं मैं और नहीं
देखा जो अपने को तू ही मिला तू और नहीं मैं और नहीं

तू ही अदम का था पर्दा-नशीं मिरे दिल के मकाँ का है तू ही मकीं
मिरी हस्ती है सब ये ज़ुहूर तिरा तू और नहीं मैं और नहीं

मिरे होश-रुबा ने है फ़ज़्ल किया मुझे राज़-ए-ख़ुदाई अपना दिया
मिरी रूह में रूह मिला के कहा तू और नहीं मैं और नहीं

कहता है ये मुझ से मेरा सनम कि हैं एक ही ये दोनों हुदूस-ओ-क़िदम
कुछ फ़र्क़ नहीं इस में है ज़रा तू और नहीं मैं और नहीं

'मर्दान-सफ़ी' मिरा माह-ए-लक़ा है मेरी ही शक्ल में जल्वा-नुमा
मुझ से ये कहता है कह दे खुला तू और नहीं मैं और नहीं