तू है और ऐश है और अंजुमन-आराई है
मैं हूँ और रंज है और गोशा-ए-तन्हाई है
सच कहा है कि ब-उम्मीद है दुनिया क़ाइम
दिल-ए-हसरत-ज़दा भी तेरा तमन्नाई है
दिल की फ़रियाद जो सुनता हूँ तो रो देता हूँ
चोट कम्बख़्त ने कुछ ऐसी ही तो खाई है
बे-नियाज़ी की अदाएँ वो दिखाते हैं बहुत
ख़ू-ए-तस्लीम मिरी उन को पसंद आई है
ज़ुल्फ़ बरहम मिज़ा बरगश्ता जबीं चीन-आलूद
मेरी बिगड़ी हुई तक़दीर की बन आई है
अदब-आमोज़ बला का है तग़ाफ़ुल उन का
शौक़-ए-पुर-हौसला ने ख़ूब सज़ा पाई है
कहे देता हूँ किसी और की जानिब तू न देख
क्या ये कुछ कम है कि 'वहशत' तिरा सौदाई है
ग़ज़ल
तू है और ऐश है और अंजुमन-आराई है
वहशत रज़ा अली कलकत्वी