तू बिगड़ता भी है ख़ास अपने ही अंदाज़ के साथ
फूल खिलते हैं तिरे शोला-ए-आवाज़ के साथ
एक बार और भी क्यूँ अर्ज़-ए-तमन्ना न करूँ
कि तू इंकार भी करता है अजब नाज़ के साथ
लय जो टूटी तो सदा आई शिकस्त-ए-दिल की
रग-ए-जाँ का कोई रिश्ता है रग-ए-साज़ के साथ
तू पुकारे तो चमक उठती हैं मेरी आँखें
तेरी सूरत भी है शामिल तिरी आवाज़ के साथ
जब तक अर्ज़ां है ज़माने में कबूतर का लहू
ज़ुल्म है रब्त रखूँ गर किसी शहबाज़ के साथ
पस्त इतनी तो न थी मेरी शिकस्त ऐ यारो
पर समेटे हैं मगर हसरत पर्वाज़ के साथ
पहरे बैठे हैं क़फ़स पर कि है सय्याद को वहम
पर-शिकस्तों को भी इक रब्त है पर्वाज़ के साथ
उम्र भर संग-ज़नी करते रहे अहल-ए-वतन
ये अलग बात कि दफ़नाएँगे ए'ज़ाज़ के साथ
ग़ज़ल
तू बिगड़ता भी है ख़ास अपने ही अंदाज़ के साथ
अहमद नदीम क़ासमी