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तू अपने शहर-ए-तरब से न पूछ हाल मिरा | शाही शायरी
tu apne shahr-e-tarab se na puchh haal mera

ग़ज़ल

तू अपने शहर-ए-तरब से न पूछ हाल मिरा

असलम महमूद

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तू अपने शहर-ए-तरब से न पूछ हाल मिरा
मुझे अज़ीज़ है ये कूचा-ए-मलाल मिरा

अभी तो होना है इक रक़्स-ए-बे-मिसाल मिरा
दिए की लौ से अभी देखना विसाल मिरा

वो दर्द हूँ कोई चारा नहीं है जिस का कहीं
वो ज़ख़्म हूँ कि है दुश्वार इंदिमाल मिरा

तो क्या ये वक़्त यूँही रौंदता रहेगा मुझे
डराता रहता है मुझ को यही सवाल मिरा

जवाज़ रखता हूँ मैं अपने ज़िंदा होने का
कि एक ख़्वाब से है सिलसिला बहाल मिरा

हवा की दोस्ती अच्छी न दुश्मनी अच्छी
चराग़ पहले न था अब है हम-ख़याल मिरा

मैं अक्स बन के इसी से उभरना चाहता हूँ
सो मेरे आइना-गर आइना उजाल मिरा

लहू की नज़्र हुआ एक एक ख़्वाब-ए-नुमू
हवा के साथ गया ख़ेमा-ए-ख़याल मिरा

कभी मैं शोला था अब सिर्फ़ राख हूँ 'असलम'
हलाक कर के रहा मुझ को इश्तिआल मिरा