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तुम्हें हमारी मोहब्बतों के हसीन जज़्बे बुला रहे हैं | शाही शायरी
tumhein hamari mohabbaton ke hasin jazbe bula rahe hain

ग़ज़ल

तुम्हें हमारी मोहब्बतों के हसीन जज़्बे बुला रहे हैं

नदीम गुल्लानी

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तुम्हें हमारी मोहब्बतों के हसीन जज़्बे बुला रहे हैं
जो हम ने लिक्खे थे तुम पे हमदम वो सारे नग़्मे बुला रहे हैं

वहाँ तुम्हारे भी बचपनों की हसीन यादें हैं दफ़्न यारो
ख़ुदा गवाह है वतन में तुम को तुम्हारे क़स्बे बुला रहे हैं

जो हक़ ग़रीबों का खा रहे हो तो याद रखना ऐ हुक्मरानो
कहीं पे तुम को भी ज़ुल्मतों के सुलगते रक़्बे बुला रहे हैं

हमारे लहजे की लरज़िशों से समझ सको तो समझ भी जाओ
तुम्हारे ग़म से लगे जो दिल पे वो सारे तम्ग़े बुला रहे हैं

यक़ीन जानो तुम्हारे जाने के ब'अद कोई रचा न मज़हब
तुम्हारी तस्बीह तुम्हारे सज्दे तुम्हारे कलमे बुला रहे हैं

'नदीम' दानिशवरों की महफ़िल कभी न कुछ भी अता करेगी
चलो कि ''जानी-पुरा' जहाँ पे वो यार कमले बुला रहे हैं