तुम्हें गिला ही सही हम तमाशा करते हैं
मगर ये लोग भी क्या कम तमाशा करते हैं
दिखाई देते नहीं अव्वलन मिरे दरवेश
कहीं मिलें तो ब-रक़सम तमाशा करते हैं
ये ख़ास भीड़ है मरहूम बादशाहों की
यहाँ सिकन्दर-ए-आज़म तमाशा करते हैं
शरीक-ए-कार-ए-इबादत नहीं रहे कि ये लोग
दरून-ए-मजलिस-ए-मातम तमाशा करते हैं
बस एक पाँव थिरकता है रात-दिन मुझ में
चहार-सू कई आलम तमाशा करते हैं
खुला है आज भी उस ख़ानक़ाह-ए-इश्क़ का दर
मलंग आज भी पैहम तमाशा करते हैं
तुयूर देखने आते हैं मेरी एक झलक
हज़ार बरगद-ओ-शीशम तमाशा करते हैं
ये शहर मजमा-ए-ख़ाली से गर नहीं है ख़ुश
तो आओ मिल के अज़ीज़म तमाशा करते हैं
कुछ ऐसे लोग हैं मेरे भी मिलने वाले लोग
जो बर-जनाज़ा-ओ-चिहलुम तमाशा करते हैं
ग़ज़ल
तुम्हें गिला ही सही हम तमाशा करते हैं
आतिफ़ कमाल राना