तुम्हें ग़मों का समझना अगर न आएगा
तो मेरी आँख में आँसू नज़र न आएगा
ये ज़िंदगी का मुसाफ़िर ये बे-वफ़ा लम्हा
चला गया तो कभी लौट कर न आएगा
बनेंगे ऊँचे मकानों में बैठ कर नक़्शे
तो अपने हिस्से में मिट्टी का घर न आएगा
मना रहे हैं बहुत दिन से जश्न-ए-तिश्ना-लबी
हमें पता था ये बादल इधर न आएगा
लगेगी आग तो सम्त-ए-सफ़र न देखेगी
मकान शहर में कोई नज़र न आएगा
'वसीम' अपने अँधेरों का ख़ुद इलाज करो
कोई चराग़ जलाने इधर न आएगा
ग़ज़ल
तुम्हें ग़मों का समझना अगर न आएगा
वसीम बरेलवी