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तुम्हें ग़मों का समझना अगर न आएगा | शाही शायरी
tumhein ghamon ka samajhna agar na aaega

ग़ज़ल

तुम्हें ग़मों का समझना अगर न आएगा

वसीम बरेलवी

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तुम्हें ग़मों का समझना अगर न आएगा
तो मेरी आँख में आँसू नज़र न आएगा

ये ज़िंदगी का मुसाफ़िर ये बे-वफ़ा लम्हा
चला गया तो कभी लौट कर न आएगा

बनेंगे ऊँचे मकानों में बैठ कर नक़्शे
तो अपने हिस्से में मिट्टी का घर न आएगा

मना रहे हैं बहुत दिन से जश्न-ए-तिश्ना-लबी
हमें पता था ये बादल इधर न आएगा

लगेगी आग तो सम्त-ए-सफ़र न देखेगी
मकान शहर में कोई नज़र न आएगा

'वसीम' अपने अँधेरों का ख़ुद इलाज करो
कोई चराग़ जलाने इधर न आएगा