तुम्हारी याद तो लिपटी है पूरे घर के मंज़र से
दरीचे से ज़मीं से बाम से दीवार से दर से
मुझे तो कूचा-ए-महबूब का पत्थर भी प्यारा है
नगीं से ला'ल से अल्मास से नीलम से गौहर से
मुक़द्दर की शब-ए-ज़ुल्मत कभी रौशन नहीं होती
दिए से माह से क़िंदील से जुगनू से अख़्तर से
तुम्हारी आँख की गहराइयों का क्या तक़ाबुल हो
नदी से झील से दरिया से झरने से समुंदर से
यज़ीदों को ख़बर है कर्बला वाले नहीं डरते
सिनाँ से तीर से तलवार से बर्छी से ख़ंजर से
करें हम सई जितनी भी कहाँ मुमकिन है बच पाना
ज़ईफ़ी से क़ज़ा से क़ब्र से बर्ज़ख़ से महशर से
तुम्हारी दीद की तिश्ना-निगाहों को है क्या निस्बत
सुबू से तूर से चिलमन से पैमाने से कौसर से
ग़ज़ल की शाइ'री का वस्फ़ है सब से जुदागाना
अदा से फ़िक्र से उस्लूब से जिद्दत से तेवर से
ग़ज़ल
तुम्हारी याद तो लिपटी है पूरे घर के मंज़र से
शगुफ़्ता यासमीन